Breaking the standard mould, Indian I.R. regime can chart a new story altogether.
India can and must break the global I.P.R. mould
The world today is controlled by Western models of innovation, and monetisation of those innovations. That is called the legal cornering of temporary “monopoly right” for the inventors, i.e. the Patents regime. If you are innovative, you can think of something “not obvious to most in the same trade”, and create genuinely new value out of that combination of things/ideas/stuff, you can apply to the Patents Office of the country, and claim a legal I.P.R. (intellectual property right) for that work. Then, you can make some or tonnes of money. But there are serious problems in this model. (1) All Patents Offices are under-staffed, and also have a habit of rejecting a lot of applications (erring on the side of caution), (2) Many countries do not agree on the same thing (US and Japan granted patents to Viagra by Pfizer, but UK denied it citing prior reference to such an inventive path by a Nobel prize winner – hence a “non-non-obvious” invention, hence no patent!), (3) IP rights are supposed to catalyse innovation, but the Patenting system itself is immune to innovation!, (4) IP regimes (including India’s) continues to treat innovations as “land – that is firm” and not “water – that is flowing and cannot be owned by any one” (jurist Hugo Grotius, 15th century – which gave the concept of High Seas).
Look at past 50 years of Indian Pharma. From PM Indira Gandhi, who abhorred costly medicines as being anti-humanity, Indian pharma industry has been marvellous at reverse engineering (breaking existing MNC medicines (molecules) to arrive at a different process of making the same product) and we have a global-scale “Generics industry” in India now. Also, we have affordable medicines for our vast population (unlike the US). The whole patents idea is outdated or at least needs a totally fresh look. Why? (1) Patents are fundamentally uncertain instruments, and no two nations will agree 100% on all aspects. So why should India bother about the poor rankings that biased bodies like US Chamber of Commerce give us, putting us at the bottom of “IP Index”, (2) Even fine innovators like Elon Musk are not happy with patenting systems and have opened up all patents to the world (download PDF from Bodhi Resources page – Science and Technology), (3) When Artificial Intelligence (AI) arrives, the non-sentient sapiens (the robots / the beings) will have infinite information, and they can combine anything in any way possible (so nothing will be non-obvious, hence patents?). India must break the mould of global IPR system. India must go for alternative systems (prizes for inventions, open source etc.). We should not invest heavily in such patents-driven R&D. Go light, go disruptive.
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भारत को वैश्विक बौद्धिक संपदा अधिकारों के ढ़ांचे को तोडना ही पड़ेगा
आज का विश्व पश्चिमी पद्धतियों या नवप्रवर्तनों, और उन नवप्रवर्तनों के मुद्रीकरण द्वारा नियंत्रित है। इसे निवेशकों हेतु एकाधिकार अधिकारों का न्यायिक आवंटन कहते हैं, अर्थात पेटेंट शासन (पेटेंट = एकस्व)
यदि आप नवप्रवर्तक हैं तो आप “उसी व्यापार में मौजूद अन्य लोगों को जो अधिक प्रत्यक्ष रूप से प्रतीत होता है उससे कुछ अलग हटकर विचार कर सकते हो” और उस संयोजन की वस्तुओं/विचारों/स्थिति से कुछ वास्तविक रूप से नया निर्मित कर सकते हो। आप उस देश के पेटेंट कार्यालय में आवेदन करके उस कार्य के लिए एक विधिक बौद्धिक संपदा अधिकार प्राप्त कर सकते हो। और इस प्रकार उससे आप ढेरों पैसा अर्जित कर सकते हो।
परंतु इस विधि में कुछ गंभीर समस्याएँ हैं। (1) सभी पेटेंट कार्यालय कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं, साथ ही सावधानी के रूप में उनकी अधिकांश आवेदनों को अस्वीकार करने की आदत होती है। (2) अनेक देश उसी बात पर सहमत नहीं होते हैं (अमेरिका और जापान ने फाइजर द्वारा निर्मित वियाग्रा को पेटेंट प्रदान किया परंतु यूके ने उसे नोबेल पुरस्कार विजेता द्वारा अपनाये गए इस प्रकार के आविष्कारशील मार्ग का अनुसरण - अतः गैर-प्रत्यक्ष आविष्कार - अतः पेटेंट प्रदान नहीं किया जा सकता - कहते हुए अस्वीकार किया) । (3) बौद्धिक संपदा अधिकारों को नवप्रवर्तनों का उत्प्रेरक माना जाता है परंतु स्वयं पेटेंट व्यवस्था ही नवप्रवर्तनों की प्रतिरोधी है। (4) बौद्धिक संपदा शासन (भारत सहित) नवप्रवर्तन को भूमि मानते हैं - अर्थात दृढ़ - वे उसे पानी - अर्थात प्रवाहित होने वाला नहीं मानते हैं, और मानते हैं कि इसपर किसीका स्वामित्व संभव नहीं हो सकता।
प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से लेकर अब तक के पचास वर्षों के भारतीय औषधि उद्योग को देखें। वे महँगी औषधियों से यह कहकर घृणा करती थीं कि ये मानवता विरोधी होती हैं। भारतीय औषधि उद्योग रिवर्स इंजीनियरिंग की दृष्टि से अद्भुत रहा है (उसी उत्पाद के निर्माण की भिन्न प्रक्रिया तक आने के लिए विद्यमान बहुराष्ट्रीय कंपनियों (के अणुओं) को तोड़ने में)। और आज हमारे यहाँ भारत में वैश्विक स्तर का “Generics उद्योग” है। साथ ही हमारे यहाँ हमारी विशाल जनसंख्या के लिए सस्ती औषधियां उपलब्ध हैं। (अमेरिका के विपरीत) पेटेंट का पूर्ण विचार ही अप्रचलित हो चुका है, या कम से कम इसकी ओर देखने के नजरिये में परिवर्तन तो आना ही चाहिए। क्यों? (1) बुनियादी रूप से पेटेंट अनिश्चित उपकरण हैं और इसके सभी पहलुओं पर कोई भी दो देश 100 प्रतिशत सहमत नहीं हो सकते। तो फिर भारत को अमेरिकी चैम्बर ऑफ कॉमर्स जैसे पक्षपाती अभिकरणों द्वारा दिए गए कमजोर क्रमांकन की चिंता क्यों करनी चाहिए, जो हमें “बौद्धिक संपदा सूचकांक” में सबसे निचली पायदान पर रखते हैं। (2) यहाँ तक कि एलोन मस्क जैसे श्रेष्ठ नवप्रवर्तक भी पेटेंट व्यवस्था से खुश नहीं हैं और इसीलिए उन्होंने सभी पेटेंट संपूर्ण विश्व के लिए खुले कर दिए हैं। [ बोधि संसाधन पृष्ठ - विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी - से पीडीएफ डाउनलोड करें ] (3) जब कृत्रिम खुफिया का आगमन होगा तब गैर संवेदनशील सेपियंस (रोबोट/मनुष्य) को असीमित जानकारी उपलब्ध होगी और वे किसी भी वस्तु को किसी भी संभावित प्रकार से संयोजित कर पाने में सक्षम होंगे (अतः कुछ भी गैर-प्रत्यक्ष नहीं होगा, अतः पेटेंट?) भारत को वैश्विक बौद्धिक संपदा के ढ़ांचें को तोडना होगा। भारत को वैकल्पिक पद्धतियों की ओर जाना होगा (नवप्रवर्तनों के लिए पुरस्कार, खुले स्रोत, इत्यादि)। हमें इस प्रकार के पेटेंट-चालित अनुसंधान और विकास पर बहुत अधिक निवेश नहीं करना चाहिए।
Useful resources for youप्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से लेकर अब तक के पचास वर्षों के भारतीय औषधि उद्योग को देखें। वे महँगी औषधियों से यह कहकर घृणा करती थीं कि ये मानवता विरोधी होती हैं। भारतीय औषधि उद्योग रिवर्स इंजीनियरिंग की दृष्टि से अद्भुत रहा है (उसी उत्पाद के निर्माण की भिन्न प्रक्रिया तक आने के लिए विद्यमान बहुराष्ट्रीय कंपनियों (के अणुओं) को तोड़ने में)। और आज हमारे यहाँ भारत में वैश्विक स्तर का “Generics उद्योग” है। साथ ही हमारे यहाँ हमारी विशाल जनसंख्या के लिए सस्ती औषधियां उपलब्ध हैं। (अमेरिका के विपरीत) पेटेंट का पूर्ण विचार ही अप्रचलित हो चुका है, या कम से कम इसकी ओर देखने के नजरिये में परिवर्तन तो आना ही चाहिए। क्यों? (1) बुनियादी रूप से पेटेंट अनिश्चित उपकरण हैं और इसके सभी पहलुओं पर कोई भी दो देश 100 प्रतिशत सहमत नहीं हो सकते। तो फिर भारत को अमेरिकी चैम्बर ऑफ कॉमर्स जैसे पक्षपाती अभिकरणों द्वारा दिए गए कमजोर क्रमांकन की चिंता क्यों करनी चाहिए, जो हमें “बौद्धिक संपदा सूचकांक” में सबसे निचली पायदान पर रखते हैं। (2) यहाँ तक कि एलोन मस्क जैसे श्रेष्ठ नवप्रवर्तक भी पेटेंट व्यवस्था से खुश नहीं हैं और इसीलिए उन्होंने सभी पेटेंट संपूर्ण विश्व के लिए खुले कर दिए हैं। [ बोधि संसाधन पृष्ठ - विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी - से पीडीएफ डाउनलोड करें ] (3) जब कृत्रिम खुफिया का आगमन होगा तब गैर संवेदनशील सेपियंस (रोबोट/मनुष्य) को असीमित जानकारी उपलब्ध होगी और वे किसी भी वस्तु को किसी भी संभावित प्रकार से संयोजित कर पाने में सक्षम होंगे (अतः कुछ भी गैर-प्रत्यक्ष नहीं होगा, अतः पेटेंट?) भारत को वैश्विक बौद्धिक संपदा के ढ़ांचें को तोडना होगा। भारत को वैकल्पिक पद्धतियों की ओर जाना होगा (नवप्रवर्तनों के लिए पुरस्कार, खुले स्रोत, इत्यादि)। हमें इस प्रकार के पेटेंट-चालित अनुसंधान और विकास पर बहुत अधिक निवेश नहीं करना चाहिए।
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