Data can be magical if the right interpretation is done. Hans Rosling proved it.
History, data, culture, analysis, stories… and Hans Rosling
There is a common perception that data, quantitative methods and statistical techniques are used only in hard sciences and technical studies. That is clearly wrong: social scientists and historians too do that, with surprising results. Today, citizens trust data and tables (and ranks) a lot, (a) partly due to a credibility crisis in news media, (b) partly due to the rampant nonsense available on the internet and (c) finally due to a desire to seek “hard truth” – what can be better than numbers / ranks / league tables / leaderboards. There was a magician of statistics, who could pull out amazing stories using numbers, and do it simply. He was the late Hans Rosling who did 3 things – (1) Question why people trust stuff not backed by data, (2) Identify that data visualisation and presentation was to blame for people’s biased views, and (3) He brought moving animated nature to it. We have an embedded TED talk of Rosling (2006) here; click to view [Content belongs to TED and original can be viewed here] Historians can create magical insights using quantitative methods. There are many journals of that nature published today. It is important to not consider numbers “more important” than alphabets. But they can give miraculous results.
An example – Roman Studer’s paper (2008) on “India and the great divergence : Assessing the efficiency of grain markets in 18th and 19th century India). You can download it from Bodhi Resources page (Useful Reports – India and the World) He collected data on wheat and rice prices in Indian markets from 1700 onwards upto 1914, across 46 cities. We can see how massively tough this must have been. Finally, he got 70 “price series” and got an insight on integration of the various Indian markets that affected price fluctuations. He found that – Till 1850, prices in various parts (Bengal, northern India, western India) remained disconnected, showing unrelated spikes etc. Only after 1850 did they show a harmony in movement. The broader debate was – Why did Western Europe develop so much compared to rest of the world? One view is that India and China also were developed before the colonialists ruined them. Other view is that there really was something special about Western Europe. Studer’s hard conclusions can perhaps point to the fact that Indian agricultural markets (hence the economy) was already under-developed before the Europeans arrived. [That is very, very debatable indeed!] Broad idea is : data, facts and statistical methods, if used ingeniously, can lead to miraculous insights.
[ ##thumbs-o-up## Share Testimonial here - make our day!] [ ##certificate## Volunteer for Bodhi Booster portal]
Amazing Courses - Online and Classroom
इतिहास, आंकड़ें, संस्कृति, विश्लेषण, कथाऐं ...... और हांस रोसलिंग
एक आम अवधारणा यह है कि आंकड़ों, संख्यात्मक विधियों, सांख्यिकीय तकनीकों का उपयोग केवल कठोर विज्ञान और तकनीकी अध्ययनों में ही किया जाता है। यह स्पष्ट रूप से गलत है - सामाजिक वैज्ञानिक और इतिहासकार भी इनका उपयोग करते हैं।
आज नागरिक आंकड़ों, और तालिकाओं (और क्रमांकन) पर काफी विश्वास करते हैं, (ए) आंशिक रूप से समाचार मीडिया में विश्वसनीयता के संकट के कारण, (बी) आंशिक रूप से इन्टरनेट पर उपलब्ध बेतहाशा बेकार जानकारी के कारण, और (सी) अंत में ठोस सत्य को जानने की चाह - तो संख्याओं, क्रमांकों, लीग तालिकाओं, लीडरबोर्डों से बेहतर क्या है।
सांख्यिकी का एक जादूगर था जो संख्याओं के उपयोग से आश्चर्यजनक कहानियां निकालकर ला सकता था और यह काम अत्यंत आसानी से करता था। वह व्यक्ति थे स्वर्गीय हांस रोसलिंग जिन्होंने तीन काम किये - (1) यह प्रश्न पूछा कि लोग आंकड़ों के बिना प्रस्तुत की गई बातों पर विश्वास क्यों करते हैं, (2) इस बात की पहचान की कि आंकडे प्रत्योक्षकरण (मानसिक दर्शन) और प्रस्तुतीकरण ही लोगों के पक्षपातपूर्ण विचारों के लिए जिम्मेदार हैं, और (3) वे इसमें गतिमान जीव-संचारण (सजीवता) लाये।
हमारे पास रोसलिंग (2006) पर एक टेड चर्चा है : देखने के लिए यहाँ क्लिक करें। यह सामग्री टेड की संपत्ति है और मूल चर्चा यहाँ देख सकते हैं ,
इतिहासकार संख्यात्मक पद्धतियों का उपयोग करके जादुई अंतर्दृष्टि का निर्माण कर सकते हैं। आज इस विषय में अनेक पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि संख्याओं को वर्णमाला से “अधिक महत्वपूर्ण” न समझा जाए। परंतु वे अद्भुत परिणाम दे सकते हैं।
एक उदाहरण - “भारत और महान विचलन : 18 वीं और 19 वीं सदी के भारत के अनाज बाजारों की कुशलता का विश्लेषण” पर रोमन विद्यार्थियों (2008) का प्रश्नपत्र [ आप इसे बोधि संसाधन पृष्ठ (उपयोगी रिपोर्ट्स - भारत एवं विश्व) से डाउनलोड कर सकते हैं ] उन्होंने 1700 से लेकर 1914 तक के 46 शहरों के भारतीय बाजारों के गेहूं और चावल की कीमतों के आंकडें एकत्रित किये। हम समझ सकते हैं कि यह काम कितना विशालकाय रहा होगा। अंत में उन्हें 70 “मूल्य श्रृंखलाएं” प्राप्त हुईं और साथ ही मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों को प्रभावित करने वाले विभिन्न भारतीय बाजारों के एकीकरण पर एक अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। उन्होंने पाया कि वर्ष 1850 तक विभिन्न हिस्सों में (बंगाल उत्तरी भारत, पश्चिमी भारत) मूल्य वियोजित रहे, जो असंबद्ध वृद्धि इत्यादि दर्शाता है। वर्ष 1850 के बाद ही इनकी गतिकी में एक सुसंगति दिखाई देती है। अधिक व्यापक बहस यह थी कि - शेष विश्व की तुलना में पश्चिमी यूरोप का इतना अधिक विकास क्यों हुआ? एक विचार यह है कि भारत और चीन भी उस समय तक विकसित थे जब तक कि उपनिवेशवादियों ने यहाँ आकर उन्हें तबाह नहीं कर दिया। एक अन्य विचार यह है कि वास्तव में पश्चिमी यूरोप में कुछ तो विशेषता थी। स्टुडर के ठोस निष्कर्ष इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि भारतीय कृषि बाजार (अतः अर्थव्यवस्था) यूरोपीयों के आने से पहले पहले से ही अविकसित थे ख् यह वास्तव में काफी विवादस्पद और बहस का विषय है! , व्यापक विचार यह है कि आंकडे, तथ्य और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग यदि चतुराईपूर्वक किया जाए तो वे आश्चर्यजनक और अद्भुत अंतर्दृष्टि प्रदान करने में सक्षम हैं।
Useful resources for youएक उदाहरण - “भारत और महान विचलन : 18 वीं और 19 वीं सदी के भारत के अनाज बाजारों की कुशलता का विश्लेषण” पर रोमन विद्यार्थियों (2008) का प्रश्नपत्र [ आप इसे बोधि संसाधन पृष्ठ (उपयोगी रिपोर्ट्स - भारत एवं विश्व) से डाउनलोड कर सकते हैं ] उन्होंने 1700 से लेकर 1914 तक के 46 शहरों के भारतीय बाजारों के गेहूं और चावल की कीमतों के आंकडें एकत्रित किये। हम समझ सकते हैं कि यह काम कितना विशालकाय रहा होगा। अंत में उन्हें 70 “मूल्य श्रृंखलाएं” प्राप्त हुईं और साथ ही मूल्यों में होने वाले उतार-चढ़ावों को प्रभावित करने वाले विभिन्न भारतीय बाजारों के एकीकरण पर एक अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई। उन्होंने पाया कि वर्ष 1850 तक विभिन्न हिस्सों में (बंगाल उत्तरी भारत, पश्चिमी भारत) मूल्य वियोजित रहे, जो असंबद्ध वृद्धि इत्यादि दर्शाता है। वर्ष 1850 के बाद ही इनकी गतिकी में एक सुसंगति दिखाई देती है। अधिक व्यापक बहस यह थी कि - शेष विश्व की तुलना में पश्चिमी यूरोप का इतना अधिक विकास क्यों हुआ? एक विचार यह है कि भारत और चीन भी उस समय तक विकसित थे जब तक कि उपनिवेशवादियों ने यहाँ आकर उन्हें तबाह नहीं कर दिया। एक अन्य विचार यह है कि वास्तव में पश्चिमी यूरोप में कुछ तो विशेषता थी। स्टुडर के ठोस निष्कर्ष इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि भारतीय कृषि बाजार (अतः अर्थव्यवस्था) यूरोपीयों के आने से पहले पहले से ही अविकसित थे ख् यह वास्तव में काफी विवादस्पद और बहस का विषय है! , व्यापक विचार यह है कि आंकडे, तथ्य और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग यदि चतुराईपूर्वक किया जाए तो वे आश्चर्यजनक और अद्भुत अंतर्दृष्टि प्रदान करने में सक्षम हैं।
[Newsletter ##newspaper-o##] [Bodhi Shiksha channel ##play-circle-o##] [FB ##facebook##] [हिंदी बोधि ##leaf##] [Sameeksha live ##graduation-cap##] [Shrutis ##fa-headphones##] [Quizzes ##question-circle##] [Bodhi Revision ##book##]
COMMENTS