Unless electoral funding is cleaned up, nothing will change in a big way.
Political funding, black money & India
The 2016 demonetisation exercise (DeMo) raised hopes for an “India of our dreams”. The linkage between black money ↔ political donations ↔ transparency in elections has never been observed more sharply, as today. The top political executive of India – the Prime Minister – has exhorted his own Party and the nation, for transparency in political funding. People want it, too, to improve their lives. Indian income inequalities have risen since 1995, without exception. India’s richest 1% hold 53% of country’s wealth (2017). India is doing rather badly in ensuring egalitarianism, despite our Constitution’s solid thrust on it. There is open speculation that DeMo has done nothing to the illegally rich. Huge Hawala rackets and large-scale shell companies have been used to launder money. Rural folk may have suffered – they exchanged their moneys at a discount (to middlemen). Many organisations have studied the incomes of the politicians of India (the MPs and MLAs.). They have found that our politicians are growing richer, regularly.
Across parties, across states, politicians grow astoundingly rich when in power, each year. Indian electorate has to ask itself – despite negative perceptions, why do we re-elect the “bad” politicians? Answer is simple – we, the people, want immediate gratification. So Indian electorates (the poor especially, pressed by daily needs) may ‘vote for subsidies’. It is high time for a massive cleanup of Indian electoral funding, for all else is useless.
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राजनीतिक निधीयन, काला धन और भारत
वर्ष 2016 की विमुद्रीकरण की कार्यवाही ने “हमारे सपनों के भारत” की आशाएं जगाईं। काले धन ↔ राजनीतिक दान ↔ चुनावों में पारदर्शिता के बीच के संबंधों को आज से पहले कभी भी इतने ध्यानपूर्वक नहीं देखा गया था जितना वह आज देखा जा रहा है। भारत के शीर्ष राजनीतिक कार्यकारी - प्रधानमंत्री - ने स्वयं अपने दल और देश को राजनीतिक निधीयन में पारदर्शिता के लिए आह्वान किया है। अपने जीवन में सुधार के लिए जनता भी ऐसा चाहती है वर्ष। 1995 के बाद से भारत में असमानताओं में बिना किसी अपवाद के वृद्धि हुई है। भारत के 1 प्रतिशत सर्वाधिक अमीर व्यक्तियों के पास देश की 53 प्रतिशत संपत्ति है (वर्ष 2017) । समतावाद की सुनिश्चितता की दृष्टि से हमारे संविधान में इसके प्रति भारी जोर के बावजूद भारत का प्रदर्शन काफी खराब रहा है। यह खुले तौर पर अनुमान लगाया गया है कि विमुद्रीकरण ने अवैध रूप से संपन्न बने लोगों को कुछ नहीं किया है। भारी हवाला रैकेट और बड़े पैमाने पर शेल कंपनियों का उपयोग धन-शोधन के लिए किया गया। ग्रामीण जनता ने निश्चित रूप से कष्ट सहे होंगे - उन्होंने अपने धन का विनिमय बट्टे पर किया (बिचैलियों को दिए गए)। अनेक संगठनों ने भारत के राजनेताओं (संसद सदस्यों और विधायकों) की आयों का अध्ययन किया है। उन्हें पता चला है कि हमारे राजनेता नियमित रूप से अमीर होते जा रहे हैं।
सभी राजनीतिक दलों, सभी राज्यों के राजनीतिक लोग जब भी सत्ता में होते हैं तो प्रति वर्ष आश्चर्यजनक रूप से अधिकाधिक अमीर होते जाते हैं। भारत के मतदाताओं को स्वयं से पूछना होगा - कि नकारात्मक अवधारणा के बावजूद हम क्यों “बुरे” राजनेताओं को बार-बार चुनते हैं? इसका उत्तर बहुत ही आसान है - जनता के रूप में हमें तुरंत संतुष्टि चाहिए। अतः भारतीय मतदाता (विशेष रूप से गरीब मतदाता, जिनपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति का दबाव होता है) संभवतः “अनुव्रुत्तियों के लिए मतदान”करते हैं। अब समय आ गया है कि भारतीय चुनावी निधीयन की व्यापक पैमाने पर सफाई की जाये, क्योंकि बाकी सब कुछ निरर्थक है।
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