India needs a renewed, professional push to revisit historical research and facts. Truth must be revealed.
Who shall write History?
The commonly accepted wisdom that “Victors write history and hence it is biased” is not untrue. Those who win (the war/the state/the circumstances) are the once who stay alive and in control. They write the story. The vanquished is invisible. But truth has a way of seeping through centuries undetected and surfacing. The resurgence of the BJP which critics say is a “right wing” Party has brought this issue to the fore. The Congress rule post 1950 is credited with (or blamed for) writing Indian history in a “communist / left-wing / ultra-liberal” mould. The Congress, naturally, denies it. Critics harp on it. We, the observers, try seeking an objective balance. An interesting question was raised by the Law Minister in 2016 – “Who removed the multiple and beautiful images from India’s past traditions (Hinduism, Buddhism, King Ashok etc.) from the Constitution’s later drafts?” You may like to view video analyses on "History" on Bodhi Shiksha channel.
Recent controversies : Who won the 1576 Battle of Haldighati? Rana Pratap of Mewar or Akbar “the great”? Some BJP ministers in Rajasthan and now also in Haryana would want to stick with Rana Pratap. The liberals are horrified at the mere idea of such “contortion” of “facts”. The Karni Sena attack on filmmaker Sanjay Leela Bhansali over a “Padmavati – Alauddin Khilji” episode is yet another incident in same vein. Bigger questions : (1) What about freedom of artistic expression?, (2) What about rule of law and due process?, (3) What about centuries of accepted evidence?, etc. Was the Battle of 1576 divided on communal lines? Evidence shows that the Hindu king Man Singh was on Akbar’s side, and Muslim warrior Hakim Sur Afghan fought for Rana Pratap. So lines are blurred, not clear. The historian Badauni notes that on either sides, if Rajputs die, Islam gains. There is little doubt in anyone’s minds that “the Great Mughals” were in fact religious fanatics who sought balance only to flourish, not because they liked it. The key issue, which most agree with now (and credit for which goes to the much-reviled BJP and “Sanghis” J) is that the Marxist history writers of free India totally avoided connecting religious and cultural sides of our history with the incidents. This is not strange – Marxism and Communism is based on class struggle (socio-economic), not religious and cultural contexts which are pretty colourful, complex, time-consuming to decipher, and make a story very multi-dimensional. Today, we realize big crimes have been committed with “true” history of India. Where are the Marathas? Where is the Indus Valley civilization? Where is Kanhoji Angre who made the European navies shiver? Where is the brutality of Francis Xavier the violent missionary in Goa? Where are the glorious seafaring Cholas? Where is Nalanda and the brutality of the criminal Bakhtiyar Khilji? Where are Lachit Borphukan and Martanad Varma? Do read a detailed answer we prepared on “What would India be if Nalanda were not destroyed?”.
Clearly, we need more research, and serious budgets for objective survey. Any future “right-wing” rewriting might be as damaging as the “left-wing” rewriting has been in the past. The sad part is – original minds like Dr. C.K. Raju who have proved through rigorous research that ancient India was rich in Maths, Science and Medicine are not known in mainstream media as much as they should be. Let’s see his website.
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इतिहास कौन लिखेगा?
सामान्य रूप से स्वीकार किया गया यह ज्ञान असत्य नहीं है कि “विजेता इतिहास लिखते हैं अतः वह पक्षपातपूर्ण होता है”। जो लोग जीतते हैं (युद्ध / राज्य / स्थितियां) वे ही जीवित बचते हैं और नियंत्रण करते हैं। वे कहानी लिखते हैं। परास्त अदृश्य होते हैं। परंतु सत्य का सदियों में गुप्त रूप से और सतह पर आये बिना रिसने का एक तरीका होता है।
भाजपा के पुनरुत्थान ने, जिसे आलोचक “दक्षिणपंथी” दल कहते हैं, यह मुद्दा सतह पर लाया है। वर्ष 1950 के बाद के कांग्रेस शासन को भारतीय इतिहास “साम्यवादी / वामपंथी / अति-उदारवादी” तरीके से लिखने का श्रेय दिया जाता है (या उस पर यह आरोप लगता है) । कांग्रेस स्वाभाविक रूप से इसका इंकार करती है। आलोचक लगातार इसे दोहराते हैं। पर्यवेक्षकों के रूप में हम लोग एक वस्तुनिष्ठ संतुलन खोजने का प्रयास करते हैं।
वर्ष 2016 में कानून मंत्री ने एक दिलचस्प प्रश्न उठाया था - “भारत के संविधान के बाद के मसौदों पर से भारत की प्राचीन परंपराओं (हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, सम्राट अशोक, इत्यादि) से बहुविध और सुंदर चित्र किसने हटाए?
हाल के विवाद : 1576 का हल्दीघाटी का युद्ध किसने जीता था? मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप या अकबर “महान”? राजस्थान के कुछ भाजपा के मंत्री, और अब हरियाणा के भी, महाराणा प्रताप के नाम को ही स्वीकार करना चाहेंगे। उदारवादी “तथ्यों” को इस प्रकार से “तोड़ने-मरोड़ने” के विचार मात्र से संत्रस्त हैं। करणी सेना द्वारा “पद्मावती-अलाउद्दीन खिलजी” प्रकरण में फिल्मकार संजय लीला भंसाली पर किया गया हमला भी इसी कड़ी की घटना है। बड़े प्रश्न : (1) कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या? (2) कानून के शासन और उचित प्रक्रियाओं का क्या?, (3) सदियों से स्वीकृत साक्ष्य का क्या? इत्यादि। क्या 1576 का युद्ध सांप्रदायिक आधार पर विभाजित था? साक्ष्य दर्शाते हैं कि हिंदू राजा मानसिंह अकबर की ओर थे जबकि मुस्लिम योद्धा हाकिम सुर अफगान महाराणा प्रताप की ओर से लडे थे। अतः रेखाएं धुंधली हैं, वे स्पष्ट नहीं हैं। इतिहासकार बदायूनी ने टिप्पणी की है कि किसी भी ओर का राजपूत मरता है तो इसका लाभ इस्लाम को होता है। इस बात को लेकर किसीके मन में कोई संदेह नहीं है कि महान मुगल वास्तव में ऐसे धार्मिक उन्मादी थे जो संतुलन इसलिए चाहते थे कि वे फलें-फूलें। प्रमुख मुद्दा, जिसे अब अधिकांश लोग स्वीकार करते हैं (और इसका श्रेय सर्वाधिक झिडकी गई भाजपा और संघियों को जाता है ) वह यह है कि मार्क्सवादी इतिहास लेखक हमारे इतिहास के धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों को घटनाओं के साथ जोड़ने से पूरी तरह से बचे हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं है - मार्क्सवाद और साम्यवाद वर्ग-संघर्ष (सामाजिक-आर्थिक) पर आधारित है, न कि धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भों पर जो काफी हद तक रंगीन, जटिल, समझने की दृष्टि से समय खाने वाले होते हैं और कहानी को अत्यंत बहुअंगी बनाते हैं। आज हमें यह अनुभूति होती है कि हमारे “सच्चे” इतिहास के साथ बड़े-बड़े अपराध किये गए हैं। मराठे कहाँ हैं? सिंधु घाटी की सभ्यता कहाँ है? वे कान्होजी आंग्रे कहाँ हैं जिनके नाम से यूरोपीय नौसेनाएं कांपती थीं? गोवा के हिंसक मिशनरी फ्रांसिस जेवियर की पाशविकता कहाँ है? यशस्वी नौसेना वाले चोल कहाँ हैं? नालंदा और अपराधी बख्तियार खिलजी की क्रूरता कहाँ है? लचित बोरफुकन और मार्तंड वर्मा कहाँ हैं? “यदि नालंदा नष्ट नहीं होता तो भारत कैसा होता” पर हमारे द्वारा तैयार किया गया विस्तृत उत्तर देखें।
स्पष्ट है कि हमें वस्तुनिष्ठ सर्वेक्षण के लिए और अधिक अनुसंधान और अधिक बजट की आवश्यकता है। भविष्य में किसी “दक्षिणपंथी” द्वारा किये जाने वाले पुनर्लेखन से उतनी ही क्षति होगी जितनी पूर्व में वामपंथी लेखन द्वारा हुई है। इसका दुखद पहलू यह है कि डॉ. सी. के. राजू जैसे मौलिक दिमाग जिन्होंने कठिन अनुसंधान से साबित किया है कि प्राचीन भारत गणित, विज्ञान और चिकित्सा में अत्यंत समृद्ध था, मुख्यधारा की मीडिया में उतने नहीं जाने जाते जितने जाने जाने चाहिए। अधिक पढ़ें उनकी वेबसाईट पर।
हाल के विवाद : 1576 का हल्दीघाटी का युद्ध किसने जीता था? मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप या अकबर “महान”? राजस्थान के कुछ भाजपा के मंत्री, और अब हरियाणा के भी, महाराणा प्रताप के नाम को ही स्वीकार करना चाहेंगे। उदारवादी “तथ्यों” को इस प्रकार से “तोड़ने-मरोड़ने” के विचार मात्र से संत्रस्त हैं। करणी सेना द्वारा “पद्मावती-अलाउद्दीन खिलजी” प्रकरण में फिल्मकार संजय लीला भंसाली पर किया गया हमला भी इसी कड़ी की घटना है। बड़े प्रश्न : (1) कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या? (2) कानून के शासन और उचित प्रक्रियाओं का क्या?, (3) सदियों से स्वीकृत साक्ष्य का क्या? इत्यादि। क्या 1576 का युद्ध सांप्रदायिक आधार पर विभाजित था? साक्ष्य दर्शाते हैं कि हिंदू राजा मानसिंह अकबर की ओर थे जबकि मुस्लिम योद्धा हाकिम सुर अफगान महाराणा प्रताप की ओर से लडे थे। अतः रेखाएं धुंधली हैं, वे स्पष्ट नहीं हैं। इतिहासकार बदायूनी ने टिप्पणी की है कि किसी भी ओर का राजपूत मरता है तो इसका लाभ इस्लाम को होता है। इस बात को लेकर किसीके मन में कोई संदेह नहीं है कि महान मुगल वास्तव में ऐसे धार्मिक उन्मादी थे जो संतुलन इसलिए चाहते थे कि वे फलें-फूलें। प्रमुख मुद्दा, जिसे अब अधिकांश लोग स्वीकार करते हैं (और इसका श्रेय सर्वाधिक झिडकी गई भाजपा और संघियों को जाता है ) वह यह है कि मार्क्सवादी इतिहास लेखक हमारे इतिहास के धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों को घटनाओं के साथ जोड़ने से पूरी तरह से बचे हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं है - मार्क्सवाद और साम्यवाद वर्ग-संघर्ष (सामाजिक-आर्थिक) पर आधारित है, न कि धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भों पर जो काफी हद तक रंगीन, जटिल, समझने की दृष्टि से समय खाने वाले होते हैं और कहानी को अत्यंत बहुअंगी बनाते हैं। आज हमें यह अनुभूति होती है कि हमारे “सच्चे” इतिहास के साथ बड़े-बड़े अपराध किये गए हैं। मराठे कहाँ हैं? सिंधु घाटी की सभ्यता कहाँ है? वे कान्होजी आंग्रे कहाँ हैं जिनके नाम से यूरोपीय नौसेनाएं कांपती थीं? गोवा के हिंसक मिशनरी फ्रांसिस जेवियर की पाशविकता कहाँ है? यशस्वी नौसेना वाले चोल कहाँ हैं? नालंदा और अपराधी बख्तियार खिलजी की क्रूरता कहाँ है? लचित बोरफुकन और मार्तंड वर्मा कहाँ हैं? “यदि नालंदा नष्ट नहीं होता तो भारत कैसा होता” पर हमारे द्वारा तैयार किया गया विस्तृत उत्तर देखें।
स्पष्ट है कि हमें वस्तुनिष्ठ सर्वेक्षण के लिए और अधिक अनुसंधान और अधिक बजट की आवश्यकता है। भविष्य में किसी “दक्षिणपंथी” द्वारा किये जाने वाले पुनर्लेखन से उतनी ही क्षति होगी जितनी पूर्व में वामपंथी लेखन द्वारा हुई है। इसका दुखद पहलू यह है कि डॉ. सी. के. राजू जैसे मौलिक दिमाग जिन्होंने कठिन अनुसंधान से साबित किया है कि प्राचीन भारत गणित, विज्ञान और चिकित्सा में अत्यंत समृद्ध था, मुख्यधारा की मीडिया में उतने नहीं जाने जाते जितने जाने जाने चाहिए। अधिक पढ़ें उनकी वेबसाईट पर।
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