Indian corporate Boards need to tighten their belts.
Indian corporate battles and Boardrooms
The modern corporate structure requires (a) a business organization headed by the CEO and his/her team, and (b) a Board of Directors that governs the CEO’s decisions and provides legally and morally correct direction. This is the “check and balance” in any large corporate, where huge money is involved and morals can sway easily. Traditionally, in India, Boards’ behavior has never been a hotly debated issue as most battles remained hidden from public view, or the Boards were dominated by one family which also ran the business. But lately, Indian companies have grown so big, and professional management so firmly entrenched, that battles have emerged.
Two big battles in 2016 and 2017 – (a) the Tata – Mistry controversy, and (b) the Infosys – Vishal Sikka controversy. Read more on it in our Bodhi. Infosys co-founder N.R. Narayana Murthy has raised serious concerns about poor corporate governance norms after 2015 at his company. Many serious allegations including those of possible financial impropriety surfaced. Similarly, the Tata Sons CEO Cyrus Mistry did very well in the Board’s evaluation of his performance just five months prior to being unceremoniously sacked! Unche makaan feeke pakwaan? Hence, the concept of Board Evaluation – where the Board itself will be evaluated on multiple parameters. The SEBI circulated the Guidelines in January 2017. Can download it here. More data on Bodhi Resources page.
Unless the Board too is evaluated as per objective criterion, where is the solid guarantee that the Company’s corporate governance will stay intact? The Mistry case and the Sikka case are pointers that cannot be avoided. Have the respective Boards truly done the right thing the right way? Service providers (legal experts on this matter) point out the “Prima Donna complex” that company directors suffer from. They think they are above all evaluation, and cannot be “questioned as per a procedure”. Only time will tell if the haughty attitudes of directors will help them, or one day wipe out their arrogance in one shot. But clearly, it is time for a total revamp of existing governance practices. Rigour is needed, not formal empty procedures.
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भारतीय निगम संघर्ष और बोर्डरूम
आधुनिक निगमित संरचना के लिए निम्न की आवश्यकता होती है (ए) एक व्यापार संगठन जिसका नेतृत्व एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी और उसकी टीम द्वारा किया जाता है, और (बी) एक निदेशक मंडल जो मुख्य कार्यकारी अधिकारी के निर्णयों को शासित करता है और कानूनी रूप से और नैतिक दृष्टि से सही दिशा प्रदान करता है। किसी भी बड़े निगम में, जहाँ भारी मात्रा में धन शामिल रहता है, और जहाँ नैतिकता आसानी से हवा हो सकती है, यही नियंत्रण और संतुलन है।
पारंपरिक रूप से भारत में निदेशक मंडलों का मुद्दा कभी भी सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बना क्योंकि निगमों के अधिकांश आतंरिक संघर्ष जनता की नजरों से छिपे ही रहे, या बोर्ड पर किसी एक परिवार का वर्चस्व रहा जो उस समूह का स्वामी है। परंतु हाल के वर्षों में भारतीय कंपनियां इतनी बड़ी हो गई हैं और इनमे पेशेवर प्रबंधन इतना रच-बस गया है कि संघर्ष उभरकर सामने आ गए हैं।
वर्ष 2016 और 2017 के दो बड़े संघर्ष - (ए) टाटा-मिस्त्री विवाद, और (बी) इनफोसिस - विशाल सिक्का विवाद। इसपर और अधिक यहाँ पढ़ें। इनफोसिस के सह-संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने अपनी कंपनी में वर्ष 2015 के बाद के कमजोर निगमित शासन मानदंडों पर गंभीर चिंता प्रदर्शित की है। संभावित वित्तीय हेराफेरी सहित अनेक गंभीर आरोप उभरकर सामने आये हैं। उसी प्रकार टाटा संस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी साइरस मिस्त्री के प्रदर्शन पर उनके निष्कासन से पांच महीने पूर्व हुई बोर्ड समीक्षा बहुत अच्छी थी। ऊंचे मकान फीके पकवान अतः बोर्ड समीक्षा की संकल्पना - जहाँ स्वयं बोर्ड की समीक्षा भी अनेक मानदंडों पर होगी। सेबी ने ये दिशा निर्देश जनवरी 2017 में प्रसारित किये हैं। इन्हें यहाँ डाउनलोड कर सकते हैं। अधिक जानकारी बोधि संसाधन पृष्ठ पर।
जब तक स्वयं बोर्ड की वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर समीक्षा नहीं की जाती तब तक इस बात की क्या गारंटी है कि कंपनी का निगमित शासन मजबूत बना रहेगा? मिस्त्री मामला और सिक्का मामला ऐसे संकेतक हैं जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता। क्या इन संबंधित बोर्डों ने सही काम सही और उचित तरीके से किया है? सेवा प्रदाता (इस विषय पर कानूनी विशेषज्ञ) “प्राइमा डोना काम्प्लेक्स” (समीक्षा से परे की मानसिकता) की ओर संकेत करते हैं जिससे कंपनियों के निदेशक पीड़ित हैं। वे सोचते हैं कि वे सभी प्रकार की समीक्षा से ऊपर हैं और “प्रक्रिया के रूप में” उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछे जा सकते। यह तो केवल समय ही बताएगा कि निदेशकों का यह अभिमानी रवैया उनके लिए सहायक होगा या एक दिन एक ही झटके में उनके संपूर्ण दंभ को समूल नष्ट कर देगा। परंतु यह बात तो सही है कि अब विद्यमान निगमित शासन व्यवस्था के संपूर्ण नवीनीकरण का समय आ गया है। कठोरता आवश्यक है, न कि औपचारिक खोखली प्रक्रियाएं।
वर्ष 2016 और 2017 के दो बड़े संघर्ष - (ए) टाटा-मिस्त्री विवाद, और (बी) इनफोसिस - विशाल सिक्का विवाद। इसपर और अधिक यहाँ पढ़ें। इनफोसिस के सह-संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने अपनी कंपनी में वर्ष 2015 के बाद के कमजोर निगमित शासन मानदंडों पर गंभीर चिंता प्रदर्शित की है। संभावित वित्तीय हेराफेरी सहित अनेक गंभीर आरोप उभरकर सामने आये हैं। उसी प्रकार टाटा संस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी साइरस मिस्त्री के प्रदर्शन पर उनके निष्कासन से पांच महीने पूर्व हुई बोर्ड समीक्षा बहुत अच्छी थी। ऊंचे मकान फीके पकवान अतः बोर्ड समीक्षा की संकल्पना - जहाँ स्वयं बोर्ड की समीक्षा भी अनेक मानदंडों पर होगी। सेबी ने ये दिशा निर्देश जनवरी 2017 में प्रसारित किये हैं। इन्हें यहाँ डाउनलोड कर सकते हैं। अधिक जानकारी बोधि संसाधन पृष्ठ पर।
जब तक स्वयं बोर्ड की वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर समीक्षा नहीं की जाती तब तक इस बात की क्या गारंटी है कि कंपनी का निगमित शासन मजबूत बना रहेगा? मिस्त्री मामला और सिक्का मामला ऐसे संकेतक हैं जिन्हें नजरंदाज नहीं किया जा सकता। क्या इन संबंधित बोर्डों ने सही काम सही और उचित तरीके से किया है? सेवा प्रदाता (इस विषय पर कानूनी विशेषज्ञ) “प्राइमा डोना काम्प्लेक्स” (समीक्षा से परे की मानसिकता) की ओर संकेत करते हैं जिससे कंपनियों के निदेशक पीड़ित हैं। वे सोचते हैं कि वे सभी प्रकार की समीक्षा से ऊपर हैं और “प्रक्रिया के रूप में” उनसे कोई प्रश्न नहीं पूछे जा सकते। यह तो केवल समय ही बताएगा कि निदेशकों का यह अभिमानी रवैया उनके लिए सहायक होगा या एक दिन एक ही झटके में उनके संपूर्ण दंभ को समूल नष्ट कर देगा। परंतु यह बात तो सही है कि अब विद्यमान निगमित शासन व्यवस्था के संपूर्ण नवीनीकरण का समय आ गया है। कठोरता आवश्यक है, न कि औपचारिक खोखली प्रक्रियाएं।
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