The political union in Europe could never be formed. That is precisely the tool needed to solve today's crises | यूरोप में कभी भी राजनीतिक संघ बन ही नहीं पाया। और आज की समस्याओं को सुलझाने के लिए उसी की आवश्यकता है
Europe’s Europeanism and its limits
The European Union (EU) is celebrating the 60th anniversary of the Treaty of Rome, which established the European Economic Community (EEC). These celebrations come in the shadow of threats of disintegration of the bloc (due to Brexit) and also deep economic crisis in some states. EU brought 11 war-torn former Soviet bloc countries together, guiding their post-communist transition and establishing them as peaceful democracies. EU countries exhibit the lowest income inequalities anywhere in the world. View some facts on EU here, here, here and here. Today the Union is facing a deep crisis of its own existence.
Aspects of the crisis : (a) Brexit, (b) huge youth unemployment in Greece and Spain, (c) debt and stagnation problem in Italy, (d) surge in populist movements and (e) the backlash against immigrants and euro. It is time for a drastic transformation of its institutions. European Commission (EC) President Jean Claude has released a white paper on the future of Europe. It outlines five possible paths: (1) Continuing with the present agenda, (2) focusing on the single market, (3) allowing some countries to move faster towards integration, (4) narrowing down the agenda, and (5) ambitiously pushing for uniform and complete integration. To regain their previous health, European democracies need to integrate economically and politically; otherwise EU will continue to remain dysfunctional. It needs to develop flexibility and institutional arrangements.
From the very beginning, Europe was built on the principle that political integration would follow economic integration, the “functionalist” argument. They built mechanisms for economic cooperation, which was supposed to create the ground for common political institutions. In the 1980s, it adopted the ambitious single-market agenda, aimed at unifying European economies, leaving national policies which hampered the free movement of goods and services, people and capital. Euro was created as a single currency. In the entire process, powers like France and Germany played their part. A common social model was not developed alongside economic integration. This could have integrated not only the markets, but also social policies, labour market institutions and fiscal arrangements. Today, the job has become more difficult, with hardly any Europeans favouring shifting power away from the member nation-states. What happens now? The EU has to brace itself against radical Islamic terror, Trumpian isolationism, NATO’s funding debate, Russian threat on the border, Turkey’s resurgent fundamentalism and local economic stress. View several video analyses on world politics, here and read many Bodhi Saars on this issue, here.
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यूरोप का यूरोपवाद और उसकी सीमाऐं
यूरोपीय संघ (ईयू) रोम की उस संधि की 60 वीं वर्षगांठ मना रहा है जिसने यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) की स्थापना की। हालांकि इस समारोह पर समूह के विघटन के खतरे (ब्रेक्सिट के कारण) और अनेक राज्यों में गंभीर आर्थिक संकट की छाया है।
ईयू भूतपूर्व सोवियत गुट के 11 युद्ध से पीड़ित देशों को साथ लाया, जिसने उनके साम्यवाद-पश्चात के संक्रमण का मार्गदर्शन किया और उन्हें शांतिपूर्ण लोकतन्त्रों के रूप में स्थापित किया। ईयू देश विश्व में सबसे कम आर्थिक असमानता का प्रदर्शन करते हैं। ईयू के संबंध में कुछ तथ्य देखें यहाँ, यहाँ, यहाँ और यहाँ
आज यह समूह अपने अस्तित्व के गंभीर संकट से ग्रस्त है।
संकट के विभिन्न पहलू : (ए) ब्रेक्सिट, (बी) यूनान और स्पेन में विशाल युवा बेरोजगारी, (सी) इटली का ऋण और गतिहीनता का संकट, (डी) लोकलुभावन आंदोलनों में वृद्धि, और (ई) प्रवासियों और यूरो के बारे में गहरा असंतोष। वर्तमान समय इसकी संस्थाओं में भारी परिवर्तन का समय है। यूरोपीय आयोग (इसी) के अध्यक्ष जीन क्लाउड ने यूरोप के भविष्य पर एक श्वेत-पत्र जारी किया है। इसमें पांच संभावित मार्गों को रेखांकित किया गया है : (1) वर्तमान कार्यसूची को जारी रखना, (2) एकल बाजार पर ध्यान केंद्रित करना, (3) कुछ देशों को एकीकरण की दिशा में अधिक तेज गति से बढ़ने की अनुमति देना, (4) कार्यसूची को काफी हद तक संकुचित करना, और (5) एकसमान और पूर्ण एकीकरण को महत्वाकांक्षी स्तर पर आगे बढ़ाना। इसके पुराने स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने के लिए यूरोपीय लोकतन्त्रों को आर्थिक असुर राजनीतिक रूप से एकीकृत होना पड़ेगा, अन्यथा ईयू निरंतर रूप से अकार्यक्षम और बेकार बना रहेगा। उसे तन्यता और संस्थागत व्यवस्थाएं विकसित करना आवश्यक है।
प्रारंभ से ही यूरोप इस सिद्धांत पर निर्मित हुआ था कि राजनीतिक एकीकरण आर्थिक एकीकरण का अनुसरण करेगा, जिसे “कर्यनुरूप” तर्क कहा जाता है। उन्होंने आर्थिक सहयोग, के लिए तंत्र निर्मित किये, जिसके बारे में यह माना गया कि यह समान राजनीतिक संस्थाओं की नींव रखेगा। 1980 के दशक में उसने महत्वाकांक्षी एकल-बाजार कार्यसूची का अवलंबन किया जिसका उद्देश्य यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण था जिसमें ऐसी राष्ट्रीय नीतियों का त्याग शामिल था जो वस्तुओं और सेवाओं, लोगों (श्रम) और पूँजी के मुक्त प्रवाह को बाधित करती थीं। एकल मुद्रा के रूप में यूरो का निर्माण किया गया। इस संपूर्ण प्रक्रिया के दौरान फ्रांस और जर्मनी जैसी शक्तियों ने अपनी भूमिका निभाई। आर्थिक एकीकरण के साथ-साथ एक साझा सामाजिक मॉडल विकसित नहीं किया गया। इसने न केवल बाजारों को एकीकृत किया होता बल्कि इसने सामाजिक नीतियों, श्रम बाजार की संस्थाओं और वित्तीय व्यवस्थाओं को भी एकीकृत किया होता। आज यह कार्य और भी अधिक कठिन हो गया है, जहाँ शायद ही कोई चाहता है कि सदस्य देशों से शक्ति को दूर किया जाए। अब क्या होगा? ईयू को इस्लामिक आतंकवाद, ट्रम्प के अलगाववाद, नाटो की निधीयन बहस, सीमा पर रस्सी के खतरे, तुर्की के बढ़ते कट्टरवाद और स्थानीय आर्थिक तनाव का सामना करना पड़ रहा है। विश्व राजनीति पर विविध विश्लेषण पढ़ें, यहां और इस मुद्दे पर अनेक बोधियाँ पढ़, यहांं।
संकट के विभिन्न पहलू : (ए) ब्रेक्सिट, (बी) यूनान और स्पेन में विशाल युवा बेरोजगारी, (सी) इटली का ऋण और गतिहीनता का संकट, (डी) लोकलुभावन आंदोलनों में वृद्धि, और (ई) प्रवासियों और यूरो के बारे में गहरा असंतोष। वर्तमान समय इसकी संस्थाओं में भारी परिवर्तन का समय है। यूरोपीय आयोग (इसी) के अध्यक्ष जीन क्लाउड ने यूरोप के भविष्य पर एक श्वेत-पत्र जारी किया है। इसमें पांच संभावित मार्गों को रेखांकित किया गया है : (1) वर्तमान कार्यसूची को जारी रखना, (2) एकल बाजार पर ध्यान केंद्रित करना, (3) कुछ देशों को एकीकरण की दिशा में अधिक तेज गति से बढ़ने की अनुमति देना, (4) कार्यसूची को काफी हद तक संकुचित करना, और (5) एकसमान और पूर्ण एकीकरण को महत्वाकांक्षी स्तर पर आगे बढ़ाना। इसके पुराने स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने के लिए यूरोपीय लोकतन्त्रों को आर्थिक असुर राजनीतिक रूप से एकीकृत होना पड़ेगा, अन्यथा ईयू निरंतर रूप से अकार्यक्षम और बेकार बना रहेगा। उसे तन्यता और संस्थागत व्यवस्थाएं विकसित करना आवश्यक है।
प्रारंभ से ही यूरोप इस सिद्धांत पर निर्मित हुआ था कि राजनीतिक एकीकरण आर्थिक एकीकरण का अनुसरण करेगा, जिसे “कर्यनुरूप” तर्क कहा जाता है। उन्होंने आर्थिक सहयोग, के लिए तंत्र निर्मित किये, जिसके बारे में यह माना गया कि यह समान राजनीतिक संस्थाओं की नींव रखेगा। 1980 के दशक में उसने महत्वाकांक्षी एकल-बाजार कार्यसूची का अवलंबन किया जिसका उद्देश्य यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण था जिसमें ऐसी राष्ट्रीय नीतियों का त्याग शामिल था जो वस्तुओं और सेवाओं, लोगों (श्रम) और पूँजी के मुक्त प्रवाह को बाधित करती थीं। एकल मुद्रा के रूप में यूरो का निर्माण किया गया। इस संपूर्ण प्रक्रिया के दौरान फ्रांस और जर्मनी जैसी शक्तियों ने अपनी भूमिका निभाई। आर्थिक एकीकरण के साथ-साथ एक साझा सामाजिक मॉडल विकसित नहीं किया गया। इसने न केवल बाजारों को एकीकृत किया होता बल्कि इसने सामाजिक नीतियों, श्रम बाजार की संस्थाओं और वित्तीय व्यवस्थाओं को भी एकीकृत किया होता। आज यह कार्य और भी अधिक कठिन हो गया है, जहाँ शायद ही कोई चाहता है कि सदस्य देशों से शक्ति को दूर किया जाए। अब क्या होगा? ईयू को इस्लामिक आतंकवाद, ट्रम्प के अलगाववाद, नाटो की निधीयन बहस, सीमा पर रस्सी के खतरे, तुर्की के बढ़ते कट्टरवाद और स्थानीय आर्थिक तनाव का सामना करना पड़ रहा है। विश्व राजनीति पर विविध विश्लेषण पढ़ें, यहां और इस मुद्दे पर अनेक बोधियाँ पढ़, यहांं।
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